Lets not talk about success.. I don't think I understand that word any more..
@vibhav
well, it would be a good sign if I were self-respecting enough to not keep standing at the door-step of escapism, now that it is not providing refuge .. perhaps, your comment was based on the foresight that I will eventually quit standing there!! Hope so!
I will share here something that I am sure you have read before..
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है!!!!
Mahaan! time to escape it?
ReplyDeleteEscapism is temporary ..
ReplyDeleteI sense a profound change in you Divesh, Last I met you you were quite fine.
Chakkar lagaaon kya Zurichpur ka? :D
@thequark
ReplyDeleteperhaps.. though escaping escapism doesn't come naturally to me...
@Geetanjali
Miliyega to abhi bhi 'quite fine' hi lagenge.. "meri aawaaz hi parda hai mere chehre ka, main hoon khaamosh jahaan, mujhko wahaan se suniye"..
waise chakkar avashya lagaaiye..its been quite long.
There's a quote that goes: 90% success is just showing up. Try facing it instead of escaping and seeking refuge.
ReplyDelete--mai hoon khamosh jahan, mujh ko waha se suniye.. nida fazli.. very very touching...
That's a good sign.
ReplyDelete@Taps
ReplyDeleteLets not talk about success.. I don't think I understand that word any more..
@vibhav
well, it would be a good sign if I were self-respecting enough to not keep standing at the door-step of escapism, now that it is not providing refuge .. perhaps, your comment was based on the foresight that I will eventually quit standing there!! Hope so!
i wonder did it ever provided the 'refuge'?
ReplyDeleteI guess it does from time to time.. but I may be wrong..
ReplyDeletehmmm... sounds good! sounds really good.
ReplyDeleteI will share here something that I am sure you have read before..
ReplyDeleteकल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है!!!!
--- Harivansh Rai Bachchan
So, why escape?
:)... kya kahoon.. shaayad is gyaan ki aavashyakta thi is waqt.
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